
2024 के लोकसभा चुनावों में सीटें तो बहुत मिलीं, मगर ‘मूड’ पूरी तरह से बहुमत वाला नहीं आया। सत्ता में तो हैं, पर साथियों की बैसाखियों पर। ऐसे में भाजपा अब एक ऐसे सेनापति की खोज में है, जो सिर्फ चुनाव न जीते, संगठन भी बचा सके।
मोदी विदेश से लौटे, दिल्ली में ‘नया चेहरा’ तय करने की भागदौड़ शुरू
जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने विदेश दौरे से लौटे, भाजपा के HQ में कुर्सियों की खड़खड़ाहट तेज हो गई। जल्द ही पार्टी की आंतरिक चुनाव समिति नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की तारीख का एलान करने वाली है।
लेकिन रुकिए जनाब… कुछ प्रदेशों में अब भी ‘प्रदेश अध्यक्षों का पेंडिंग ड्राफ्ट’ लटक रहा है — खासकर उत्तर प्रदेश, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में।
संघ का फ़ॉर्मूला – “जमीन से जुड़ा, ट्विटर से दूर”
आरएसएस ने भाजपा को साफ कह दिया है — “हमें वह नेता चाहिए जो बायो में सिर्फ ‘राष्ट्रवादी’ न लिखे, बल्कि शाखा में हाजिरी भी लगाए!”
उनकी शर्तें बड़ी सिंपल हैं (या शायद बिल्कुल भी नहीं):
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वैचारिक रूप से स्पष्ट
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बूथ स्तर पर काम कर चुका हो
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शाखा व प्रांत प्रचारक का अनुभव
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मुखर हो, पर अहंकारी न हो
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संगठन आधारित नेतृत्व को माने
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और सबसे ज़रूरी — आरएसएस की मर्ज़ी से चुना गया हो
मोहन भागवत की तल्ख़ टिप्पणी – “सत्ता में अहंकार न हो”
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में जो बयान दिया – “अहंकार सत्ता में बढ़ गया है” – उसे दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में ‘संगीत के सुर’ नहीं, ‘सिग्नल की सीटी’ माना जा रहा है।
भाजपा के लिए यह टिप्पणी उसी तरह है जैसे घर में मां अचानक कह दे – “बहुत उड़ने लगे हो आजकल!”
नया अध्यक्ष: न उम्र की सीमा हो, न सोशल मीडिया का पागलपन
संघ की मंशा साफ है — युवा हो, पर यूट्यूबर न हो। सक्रिय हो, पर सेल्फीबाज़ न हो।
ऐसे में सवाल है — क्या भाजपा को ऐसा कोई चेहरा मिलेगा जो ट्विटर पर ट्रेंड करने से ज़्यादा ‘पन्ना प्रमुख’ को पहचानता हो?
‘हाईकमान’ से ‘ह्यूमन कमांड’ की वापसी?
2024 के बाद भाजपा को अब ज़रूरत है एक ऐसे अध्यक्ष की जो ‘करिश्माई नेता’ नहीं, ‘करामाती संगठनकर्ता’ हो।
संघ का संकेत है – अब पार्टी एक आदमी से नहीं, विचार और व्यवस्था से चलेगी।
या कम से कम ऐसा दिखेगा… कैमरे के सामने।
राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव: महज़ औपचारिकता नहीं
पहले जहां भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष आमतौर पर नेतृत्व का ‘मोहरधारी’ होता था, अब वह संघ की नजरों में सियासी सेनापति है, जो 2029 के लिए रणनीति गढ़ेगा। अध्यक्ष का चुनाव अब “High Command Approval” से ज़्यादा “Ideological Calibration” बन चुका है।
RSS का हस्तक्षेप: संगठन या सत्ता की सफाई?
मोहन भागवत की ‘अहंकार’ वाली टिप्पणी केवल वैचारिक चिंतन नहीं है — यह भाजपा नेतृत्व को प्रत्यक्ष चेतावनी है।
संघ मानता है कि पार्टी का “केंद्रिकृत नेतृत्व मॉडल” संगठनात्मक ऊर्जा को खत्म कर रहा है, और अब समय है उसे ‘बूथ से लेकर दिल्ली तक’ पुनर्गठित करने का।
संघ की आलोचना सत्ता के ‘व्यक्तिवादी चरित्र’ को लेकर है, जिससे भाजपा का कैडर हतोत्साहित हुआ है। यह बदलाव का पहला संकेत हो सकता है।
क्या यह मोदी युग का ‘संघी संतुलन’ है?
संघ की सक्रियता यह संकेत देती है कि वह अब मोदी-शाह के अधीन संगठन नहीं, बल्कि सहभागी और मार्गदर्शक भूमिका चाहता है। यानी:
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संगठनात्मक निर्णयों में खुलापन
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जमीनी कार्यकर्ताओं की भागीदारी
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“सर्वानुमति” का मॉडल वापस लाना